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भारत की बात

गणेश शंकर विद्यार्थी और उनका ‘प्रताप’: एक पैर जेल में, तो एक घर में रहता था Satyamanch

Satymanch Staff
By Satymanch Staff 6 months ago
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12 Min Read
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दिन था देवोत्थान एकादशी का और तारीख़ थी 9 नवम्बर 1913, जब गणेश शंकर विद्यार्थी ने ‘प्रताप’ को जन्म दिया था। ना तो कोई सहायक, ना छापाखाना, रुपए-पैसे से ना कोई मदद करने वाला -कुछ भी नहीं था उनके पास उन दिनों। किन्तु, अपनी जनसेवा की इच्छा, अटूट लगन, दृढ़ निश्चय, अनोखे आत्मविश्वास के साथ मात्र भगवान के भरोसे उन्होंने अपनी बरसों की इच्छा को ज़मीन पर ला खड़ा किया था।
उनके लेखन के शुरुआत तो मैट्रिक की पढ़ाई के दौरान ही हो गई थी ,जब मिस चार्लोट एम यंग द्वारा लिखित पाठ्यपुस्तक ‘बुक ऑफ गोल्डन डीड्स’ से प्रभावित होकर उन्होंने ‘हमारी आत्मोत्सगर्ता’ शीर्षक से एक पुस्तक लिखना शुरू कर दिया था।

इसमें उन्होंने उन भारतीय नायकों की कहानियाँ लिखी थी, जिन्होंने दूसरों के लिए अपना बलिदान दिया था। भारतवासियों के आत्मत्याग की ऐतिहासिक कथाओं का संग्रह था यह। छात्र जीवन में ही विद्यार्थी जी लालित्य पढ़ने के लिए इतना समर्पित थे कि उन्होंने उस समय के सांस्कृतिक और राजनीतिक वातावरण को पूर्ण रूप से आत्मसात कर लिया था। 19 वर्ष की अपनी उम्र में इस पुस्तक की अप्रकाशित प्रस्तावना, में उन्होंने लिखा था कि अपनी मातृभूमि की सेवा प्रत्येक मनुष्य का प्रमुख कर्तव्य है तथा इतिहास का प्रचार-प्रसार भारत के उत्थान का सबसे बड़ा उपाय है। यह हमारा कर्तव्य है कि आस्था और विश्वास के अनुसार मातृभूमि की सेवा के लिए हमें अपना जीवन समर्पित करना चाहिए।

उन्होंने यह भी लिखा था, कि महान हिंदूवीरों की पुरानी दंतकथाओं को सुनकर ही महाराणा प्रताप स्वतंत्रता के उपासक बने थे। महाभारत और रामायण की कथाओं ने ही एक पराधीन पिता के एक पराधीन पुत्र को महाराष्ट्र के छत्रपति में बदल दिया था। उन्होंने गाँवों में जोश और वीरता से ओतप्रोत गए जाने वाले आल्हा का भी जिक्र अपनी इस प्रस्तावना में किया था। उनके कहने का अर्थ यह था कि इतिहास लोगों को नींद से जगा सकता है, उन्हें अपने पैरों पर खड़ा होने की ताकत दे सकता है।

उनका कहना था कि मृत आत्माओं में जीवन डालना और सूखे फूल को हरा-भरा बनाना या तो अमृत से (यदि अमृत जैसा कुछ है) या इतिहास से ही प्राप्त किया जा सकता है। शेली, स्टुअर्ट मिल, स्पेंसर, मॉपासाँ, टॉलस्टॉय, शेक्सपियर, एच.जी. वेल्स से लेकर दादाभाई नैरोजी, फिरोज़ शाह मेहता, गोखले, तिलक, गान्धी आदि राजनैतिक लेखक और रवीन्द्रनाथ, सूर, तुलसी, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, प्रताप नारायण मिश्र, बालमुकुन्द तथा महावीर प्रसाद द्विवेदी जैसे साहित्यिक लेखक उनके विशेष प्रेम-पात्र हुआ करते थे।

आप उनकी लेखनी को देखेंगे तो पाएँगे कि गीता के निष्काम कर्म के सिद्धान्त ने उन पर बड़ा असर डाला है। विद्यार्थी जी वैसे तो देश-विदेश के सभी प्रमुख राजनैतिक और साहित्यिक लेखकों को पढ़ते थे लेकिन विक्टर ह्यूगो पर उनका विशेष प्रेम दिखता है। उनको जहाँ मौका मिलता है वो विक्टर की तारीफ़ करने से चूकते नहीं हैं। विक्टर ह्यूगो का “ला मिज़राब्ल्स” उनकी सर्वप्रिय कृति है। यह उपन्यास विश्व के चुनिंदा उपन्यासों में से एक है। जिस सजीवता से असहनीय व्याकुलता, विद्रोही विचार, करुणामय दृश्य को इस उपन्यास में वर्णित किया गया है वह अकल्पनीय है?

इस कृति को समझना हर किसी के बस की बात नहीं है, विद्यार्थी जी पर इन भावनाओं का बहुत असर पड़ा था। गणेश शंकर विद्यार्थी जी की विचारधारा और शैली में विक्टर ह्यूगो साफ़ दिखाई देते हैं। उनकी बड़ी इच्छा थी कि ह्यूगो की सभी कृतियों का हिन्दी अनुवाद कर के हिंदी पाठकों के सामने लाया जाए। जब ‘प्रताप’ का पहला अंक निकला था तो विधार्थी जी के गुरु आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने आशीर्वाद स्वरूप दो पंक्तियाँ विद्यार्थी जी को भेजी थी,-

“जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है
वह नर नहीं, नर पशु निरा है, और मृतक समान है”

वो ही मात्र एक ऐसे पत्रकार थे जिन्होंने ब्रिटिश शासन के साथ-साथ देसी सामंतों को भी नहीं बक्शा था। पत्रकारिता के पेशे को ही अपने जीवन का एकमात्र ध्येय माना हुआ था उन्होंने। अंत तक उन्होंने अपनी पत्रकारिता को किसी दल से जोड़ना मंजूर नहीं किया। विद्यार्थी जी अपनी लेखनी के माध्यम से जनजागरण करते आए, जिसके फलस्वरूप उनका एक पैर जेल में और एक घर में रहता करता था। भारत के उन सभी प्रदेशों में जहाँ-जहाँ हिन्दी भाषा बोली जाती है, अनेक भाषाप्रेमी उनको अपना गुरु माना करते थे।

बिहार, संयुक्त प्रान्त, मध्य भारत, राजस्थान और पंजाब के सैकड़ों नवयुवक उन्हें उनकी निडरता, निर्भीकता के लिए अपना नेता मानते थे। उनका अपने सभी शिष्यों से हमेशा यही कहना होता था कि अन्याय और अत्याचार के खिलाफ़ आवाज़ उठाने की आदत डाल लेनी चाहिए। विद्यार्थी जी में यह मनोवृत्ति बचपन से ही थी। छोटी-से-छोटी बात में भी मानव चरित्र की महानता की परख होती है ओर उसी से पता चल जाता है कि आगे चलकर वह दुनिया में क्या कर सकेगा। अगर किसी मनुष्य के भविष्य को जानना हो तो उसकी बचपन की मनोवृत्ति और आचार-विचार को ध्यान से देखिए। आप यह अनुमान लगा सकते हैं कि इस व्यक्ति की रुचि किस प्रकार की है और इसका भावी जीवन किस प्रकार का होने वाला है।

यह बात उन दिनों की है जब पोस्टकार्ड का टिकट काट कर किसी कागज़ या सादे कार्ड पर लगा कर भेजना कानूनी था। लेकिन एक बार इसी प्रकार के एक पोस्टकार्ड को पोस्ट आफिस वालों ने बैरंग कर दिया। श्री गणेश शंकर जी को यह बात गलत लगी। उन्होंने इसका विरोध करने के लिये एक पोस्टकार्ड का स्टाम्प काट कर एक दूसरे कागज पर चिपका कर उसे अपने नाम पर पोस्ट कर दिया। जब पोस्टकार्ड बैरंग हो कर उनके पास वापस आया तो पैसा दे कर उन्होंने उसे छुड़ा लिया।

इसके बाद वो पोस्ट मास्टर के पास गए और इसकी शिकायत कर डाली। शुरुआत में तो पोस्ट मास्टर साहब आनाकानी करते रहे लेकिन विद्यार्थी जी ने इतनी लिखा-पढ़ी कर डाली कि अन्त में डाक-विभाग के अधिकारियों को अपनी गलती माननी ही पड़ी। विद्यार्थी जी जब तक इस मसले में लगे रहे जब तक उनके वो पैसे वापस नहीं हुए। जब उनके एक मित्र ने उनसे यह सवाल पूछा कि मात्र चौथाई आने के लिए आपने इतनी माथा-पच्ची की तो उनका जवाब था कि बात चौथाई आने की नहीं थी। बात सिद्धांतों की थी।

उनका कहना था कि अगर आप छोटी-मोटी गलत बातों पर समझौता करने लगेंगे तो वो दिन दूर नहीं जब आपको सभी गलत बातें सही लगने लगेंगी। उनका मानना था कि गलत बात से समझौता नहीं करना है, चाहे वो कितनी ही छोटी हो या बड़ी। आपको यह भी हैरत होगी कि यह घटना उस समय की है, जब विद्यार्थी जी निरे विद्यार्थी थे यानी मिडिल में पढ़ते थे। वैसे तो उनके पिताजी तो फतेहगढ़ के रहने वाले थे लेकिन विद्यार्थी जी का जन्म उनके ननिहाल इलाहाबाद के अतरसुइया मोहल्ले में 26 अक्टूबर, 1890 को हुआ था।

एक बार विद्यार्थी जी ने किसी चर्चा में हँसते-हँसते बताया था कि गंगा देवी ने स्वप्न में गणेशजी की एक मूर्ति उनकी माता के हाथ में दी थी। उनकी माँ उस समय गर्भवती थीं और इस स्वप्न के अनुसार उन्होंने निश्चय कर लिया कि अगर पुत्र का जन्म हुआ तो उसका नाम गणेश और यदि वह पुत्री हुई तो उसका नाम गणेशी रखा जाएगा। संयोगवश पुत्र ही पैदा हुआ और पूर्व निश्चयानुसार उसका नाम गणेश ही रखा गया, जो आगे चल कर गणेश शंकर हो गया था।

जब उन्होंने लिखना शुरू किया तब उन्होंने अपना उपनाम ‘विद्यार्थी’ रख लिया था। विद्यार्थी का अर्थ है ‘ज्ञान का साधक”। वो कहते थे कि प्रत्येक मनुष्य जीवन भर विद्या का साधक ही बना रहता है। ताउम्र वह कुछ ना कुछ सीखता ही रहता है किन्तु उसके ज्ञान का भण्डार भरता ही नहीं। जीवन भर शिक्षा लाभ करते रहने पर भी मनुष्य का ज्ञान भण्डार परिपूर्ण नहीं होता तथा वो आचार्य नहीं हो पाता है। विद्यार्थी ही रहता है। संसार को एक पाठशाला मानते हुए वो अपने को एक तुच्छ शिक्षार्थी समझते थे।

विद्यार्थी जी का कहना था कि मौलिक रचनाओं से ज्यादा अनुवाद की आवश्यकता है क्योंकि पहले ही इतना शानदार काम किया जा चुका है कि उसको सभी के सामने लाना चाहिए।

— नाम में क्या रखा है? (@Shrimaan) October 15, 2022

भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की फाँसी के बाद कानपुर में भड़के सांप्रदायिक दंगों के सामने ‘प्रताप’ समाचार पत्र के संपादक गणेश शंकर विद्यार्थी ने अनुकरणीय साहस और करुणा का परिचय दिया था। उन्होंने हिंसा में फंसे हिंदू और मुस्लिम दोनों समुदायों के सैकड़ों निर्दोष लोगों को बचाने के लिए अपनी जान जोखिम में डाल दी थी। पत्रकार होते हुए भी विद्यार्थी ने मानवता के प्रति अपने कर्तव्य की भावना से कार्य करने में संकोच नहीं किया और वह दिन भर दंगा प्रभावित इलाकों में घूमते रहे।

जब भी उन्हें हिंसा में लोगों के फँसे होने की सूचना मिली उन्होंने त्वरित कार्रवाई की और लगभग 200 मुस्लिमों को बंगाली इलाके से बचाया और उनकी सुरक्षा सुनिश्चित की थी। हालाँकि, 25 मार्च, 1931 के उस दुर्भाग्यपूर्ण दिन, चौबे गोला इलाके में फँसे 200 हिंदुओं को बचाने की कोशिश करते समय, हिंसक भीड़ द्वारा विद्यार्थी पर हमला किया गया था। कुछ लोगों द्वारा पहचाने जाने के बावजूद, उन्हें भाले से वार किया गया और लाठियों से तब तक पीटा गया जब तक कि उनकी मौत नहीं हो गई। गणेश शंकर विद्यार्थी का त्याग और वीरता आज भी लोगों को प्रेरित करती है। उन्हें सांप्रदायिक सद्भाव के नायक और पत्रकारिता के उच्चतम आदर्शों के अवतार के रूप में याद किया जाता है।

(मनीष श्रीवास्तव की पुस्तक श्रृंखला ‘क्रांतिदूत‘ का संपादित अंश)

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