हिंदू धर्मग्रंथों के अनुसार कुंभ में स्नान करने से व्यक्ति को पापों से मुक्ति मिलती है और मोक्ष की प्राप्ति होती है। इसका उल्लेख महाभारत, पुराणों और वेदों में भी मिलता है। कुंभ स्नान को ‘अमृत स्नान’ इसलिए कहा जाता है क्योंकि यह अमृत प्राप्ति की महान कथा से जुड़ा है, जिसमें समुद्र मंथन के दौरान अमृत कलश के लिए देवताओं और राक्षसों के बीच संघर्ष हुआ था। ऐसा माना जाता है कि अमृत की कुछ बूंदें हरिद्वार, प्रयागराज, उज्जैन और नासिक में गिरी थीं और इन्हीं स्थानों पर कुंभ पर्व का आयोजन किया जाता है।
भारत की प्राचीन सभ्यता और संस्कृति में कुंभ पर्व का महत्व अनादि काल से है। इसे न केवल धार्मिक दृष्टि से पवित्र माना जाता है, बल्कि यह सनातन धर्म की महान परंपरा और आध्यात्म की जीवंतता का भी प्रतीक है। Mahakumbh 2025 की शुरुआत 13 जनवरी 2025 को प्रयागराज के संगम तीर्थ पर हुई थी। लाखों श्रद्धालुओं के लिए यह पर्व उनके जीवन का अभिन्न अंग है। कुंभ मेले के दौरान अलग-अलग तिथियों पर किए जाने वाले पवित्र स्नान को विशेष महत्व दिया गया है। लेकिन ‘राजसी स्नान’ या ‘अमृत स्नान’ की जगह ‘शाही स्नान’ नाम का इस्तेमाल कैसे होने लगा, यह एक गहन ऐतिहासिक चर्चा का विषय है।
मुगल काल का प्रभाव और ‘शाही स्नान’ की उत्पत्ति
जब हम ‘शाही स्नान’ नाम के पीछे के इतिहास को जानने की कोशिश कर रहे थे, तो हमारी मुलाकात संस्कृत के विशेषज्ञ शिक्षक और क्लास-1 अधिकारी विशालभाई राजगुरु से हुई। ऑपइंडिया से बात करते हुए उन्होंने बताया, कुंभ स्नान मुगल काल से पहले भी होता रहा है और इसका विशेष महत्व भी था। उन्होंने कहा कि आज जिसे हम Mahakumbh ‘शाही स्नान’ कहते हैं, उसमें ‘स्नान’ शब्द ही हमारी प्राचीन परंपरा से जुड़ा हुआ है। उन्होंने कहा कि शाही शब्द मुगलों की देन है।
भारत में इस्लामिक शासन, खासकर मुगल काल में, भारतीय परंपराओं और भाषाओं पर गहरा प्रभाव पड़ा। इस काल में फारसी और उर्दू भाषाओं का प्रचार-प्रसार हुआ, जिसके कारण कई पारंपरिक शब्दों की जगह ले ली गई। कुंभ के पवित्र स्नान को भी इस बदलाव का शिकार होना पड़ा। विशालभाई राजगुरु ने आगे बताया कि मुगल काल में फारसी और उर्दू भाषाओं को अधिक प्राथमिकता दी गई। ऐसे में देश के अन्य भागों में भी इसका प्रचार करके हमारी मूल परंपरा और संस्कृति को भ्रष्ट करने का प्रयास किया गया। उन्होंने बताया कि उस समय नागा साधु और अन्य संत रथ, हाथी और घोड़ों के साथ बड़ी धूमधाम से कुंभ स्थल पर पहुंचते थे। यह दृश्य राजा-महाराजाओं के दरबार जैसा होता था। इस भव्यता को देखकर मुगलों ने इसे ‘शाही’ कहा, जो फारसी में राजसीपन का पर्याय है। इसी संदर्भ में Mahakumbh के पवित्र स्नान को ‘शाही स्नान’ नाम दिया गया।
धार्मिक ग्रंथों में स्नान के प्राचीन नाम
17वीं-18वीं शताब्दी में काशीनाथ उपाध्याय द्वारा लिखे गए संस्कृत ग्रंथ ‘धर्मसिंधु’ में कुंभ के स्नान को ‘अमृत स्नान’ और ‘राजसी स्नान’ बताया गया है। इस ग्रंथ को हिंदू धर्मग्रंथों और परंपराओं का प्रामाणिक स्रोत माना जाता है। इसमें कहीं भी ‘शाही स्नान’ का उल्लेख नहीं है।
‘धर्मसिंधु’ का उल्लेख गीताप्रेस गोरखपुर के ‘धर्मशास्त्रांक’ पुस्तक के पृष्ठ संख्या 423-24 पर भी है।

शाही से अमृत तक का सफर
मुगल काल में शुरू हुई यह परंपरा आधुनिक भारत तक जारी रही। साधु-संतों ने लंबे समय तक इस नाम का विरोध किया। उनका कहना था कि शाही स्नान शब्द हमारी प्राचीन परंपरा और सनातन संस्कृति का अपमान है। दरअसल, शाही स्नान का नाम बदलने की कई बार मांग की गई, लेकिन राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव में इसे नजरअंदाज कर दिया गया।
ऐसे में योगी सरकार ने इस परंपरा के मूल सम्मान को बहाल करने के लिए कदम उठाए। योगी सरकार की ओर से साधु-संतों से सुझाव मांगे गए, जिन्होंने ‘अमृत स्नान’ और ‘राजसी स्नान’ जैसे नाम सुझाए। योगी आदित्यनाथ की सरकार ने साधु-संतों की सिफारिशों पर विचार किया और इसका नाम ‘अमृत स्नान’ रखा।
योगी सरकार की पहल और साधु-संतों की सिफारिश से इस पवित्र अनुष्ठान को उसका मूल नाम ‘अमृत स्नान’ और ‘राजसी स्नान’ वापस मिल गया है। यह कदम न केवल सनातन परंपरा को पुनर्स्थापित करने का प्रयास है, बल्कि यह हमारी सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित करने का भी एक बेहतरीन उदाहरण है।